नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार को गरीबों के प्रति समर्पित रखा है


नरेंद्र मोदी ने भारत की इसी जीत को आगे बढ़ाया। कहा कि इस चुनाव को सफल बनाने के लिए चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की भी सराहना होनी चाहिए, जिसने निष्पक्ष चुनाव कराने की अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह किया। मोदी का यह तथ्य विरोधियों के चुनाव आयोग व ईवीएम पर हमले के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से शालीनता के साथ जीत को स्वीकार करने का आह्वान किया। कहा कि जनसमर्थन अधिक मिलने से जिम्मेदारी भी बढ़ी है। उसी के अनुरूप सत्ता पक्ष को नम्रता दिखानी होगी। इस कथन का अपरोक्ष सन्देश विपक्षी पार्टियों के लिए भी है। उन्हें अपनी पराजय शालीनता से स्वीकार करनी चाहिए। चुनाव आयोग की गरिमा बनाये रखनी चाहिए। अपनी नाकामी के लिए चुनाव आयोग को दोष देने से बचना चाहिए। इसी में संविधान का सम्मान है।
नरेंद्र मोदी ने कार्ल मार्क्स के इस विचार में सुधार किया। उन्होंने वर्ग संघर्ष की जगह वर्ग सहयोग का सिद्धांत प्रतिपादित किया। मार्क्स ने केवल विचार प्रस्तुत किये थे। उन पर अमल नहीं किया था। स्वयं उनका क्रियान्वयन नहीं किया था। नरेंद्र मोदी ने वर्ग सहयोग का विचार बाद में प्रस्तुत किया, उसका क्रियान्वयन वह पिछले कई वर्षों से कर रहे हैं। भाजपा के राष्ट्रीय मुख्यालय में उन्होंने कहा कि समाज में केवल दो जाति या वर्ग है। एक है वंचित या गरीब वर्ग और दूसरा धनी वर्ग। यहां तक कार्ल मार्क्स और नरेंद्र मोदी का विचार एक है। इसके बाद मार्क्स दोनों में संघर्ष अपरिहार्य मानता है। मोदी कहते हैं कि दूसरा अर्थात सक्षम वर्ग की जिम्मेदारी यह है कि वह वंचित वर्ग को गरीबी से ऊपर लाने में सहयोगी बने। इस तरह मोदी शासन, राजनीतिक पार्टियों और धनी वर्ग सभी की जिम्मेदारी तय करते हैं। नरेंद्र मोदी के शासन का यही आधार भी रहा है। उन्होंने अपने को तो फकीर ही माना है। इसीलिए कहा कि देश के लोगों ने चुनाव में इस फकीर की झोली भर दी है। नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार को गरीबों के प्रति समर्पित रखा है। पचासों लोक कल्याणकारी योजनाएं इसका प्रमाण हैं।
कार्ल मार्क्स ने समाज को दो वर्गों में विभक्त बताया था। इनमें एक है गरीब और दूसरा है अमीर। उसने गरीब लोगों को सर्वहारा व शोषित बताया। इसी के साथ धनी लोगों को शोषक के रूप में चित्रित किया। मार्क्स का चितन यहीं तक सीमित नहीं था। वह इन दोनों वर्गों में वैमनस्य देखता है। दोनों के बीच तनाव रहता है। इसे उसने वर्ग संघर्ष का नाम दिया। इतिहास का वह वर्ग संघर्ष और भौतिक आधार पर आकलन करता है। उसने यह भी कहा कि एक दिन यही सर्वहारा वर्ग शोषक लोगों को हटा देगा। मजदूर वर्ग का शासन स्थापित होगा। मार्क्स के इसी विचार को सर्वप्रथम रूस में क्रियान्वित किया गया। हिसक क्रांति के बल पर कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ। हिसक क्रांति का यह सिलसिला कई अन्य देशों में चला। इन सभी में सर्वहारा वर्ग की जगह कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही स्थापित हुई। गरीबों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता नए शोषक बन गए। इसके अलावा कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम बताया था। उसके अनुसार शोषक वर्ग वंचितों को धर्म की दुहाई देकर भाग्यवादी बना देते हैं। मार्क्स दोनों वर्गों में नफरत को अनिवार्य मानता था।
भारत के कम्युनिस्ट नेताओं को मजबूरी में प्रजातांत्रिक व्यवस्था स्वीकार करनी पड़ी। इसके अलावा उनके सामने अपनी राजनीति चलाने का कोई विकल्प भी नहीं था। धर्म को अफीम मानने के विचार को इन्होंने भारत में केवल हिन्दू धर्म पर लागू किया। ये मजहबी वोटबैंक की राजनीति करने लगे। इस सियासत को इन्होंने धर्मनिरपेक्षता का नाम दिया। लेकिन नरेंद्र मोदी ने इस विचार में भी सुधार किया। उन्होंने सबका साथ सबका विकास की नीति को कथित धर्मनिरपेक्षता का विकल्प बनाया। यह बता दिया कि देश के मुसलमान वोटबैंक नहीं हैं। वह भी इंसान हैं। उनके जीवन की भी मूलभूत आवश्यकताएं हैं। सरकार का दायित्व है कि वह सभी का जीवन स्तर उठाने का प्रयास करे। यही सेक्युलरिज़्म है। मोदी की यह नीति प्रभावी और लोकप्रिय रही। इसका असर राजनीति पर भी दिखाई दिया। वोटबैंक की राजनीति करने वाले दलों को मतदाताओं ने इस बार सबक सिखाया है।