देश में विकास को आंकड़ों और व्यक्तिगत उपलब्धि को संख्या बल की दृष्टि से देखने-परखने की आदत बन गई है। इस नाते हम मानकर चल रहे हैं कि 543 सदस्यीय लोकसभा में 181 महिलाओं की आमद दर्ज होने और 28 राज्यों की कुल 41०9 विधानसभा सीटों में से महिलाओं के खाते में 137० सीटें चली जाने से देश की आधी आबादी की शक्ल बदल जाएगी। स्त्रीजन्य विषमताएं व भेदभाव समाप्त हो जाएंगे। फिलहाल लोकसभा में 12.15 प्रतिशत और विधानसभाओं में महिलाओं की ही भागीदारी 9 फीसदी है। हालांकि असमानता के ये हालात पंचायती राज लागू होने और उसमें महिलाओं की 33 और फिर 5० फीसदी आरक्षण सुविधा मिलने के बावजूद कायम है। लेकिन लोकसभा व विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं की उपस्थिति इसलिए जरूरी है, जिससे वे कारगर हस्तक्षेप कर महिला की गरिमा तो कायम करें ही, देश में जो पुरुषों की तुलना में स्त्री का अनुपात गड़बड़ा रहा है, उसको भी समान बनाने के उपाय तलाशें? साथ ही महिला संबंधी नीतियों को अधिक उदार व समावेशी बनाने की दृष्टि से उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता भी दिखाई दे।
सत्रहवीं लोकसभा में चुनाव जीत कर आईं 78 महिलाएं अपने संसदीय क्षेत्र का नेतृत्व करेंगी। 16वीं लोकसभा में 66 महिलाएं सांसद थीं। इस बार इनकी बढ़ी आमद का श्रेय बीजू जनता दल और तृणमूल कांग्रेस को जाता है। इन दोनों दलों ने 41 और 33 प्रतिशत महिलाओं को पार्टी स्तर पर टिकट दिए। ओडिशा में लोकसभा की कुल 21 सीटें हैं। इनमें सात महिलाएं निर्वाचित हुई हैं। इनमें भी पांच बीजेडी की और दो भाजपा की हैं। बीजेडी की चंद्राणी मुर्मू जीत कर आई हैं। वह सबसे कम उम्र की महिला सांसद हैं। इस आदिवासी महिला सांसद की उम्र 25 साल है। वे इंजीनियर रही हैं। पश्चिम बंगाल से तृणमूल की 9 और भाजपा की तीन महिलाएं सांसद चुनी गई हैं। कांग्रेस ने 54 महिलाओं को टिकट दिए थे, लेकिन महज एक सोनिया गांधी जीत दर्ज करा पाई हैं। भाजपा ने 53 महिलाओं को चुनावी समर में उतारा था। इनमें से 34 सांसद चुनी गई हैं। वाइएसआर कांग्रेस की चार महिलाएं सांसद बनी हैं। मध्यप्रदेश से भी चार महिलाओं ने संसद में आमद दर्ज कराई है। इनमें भोपाल से दिग्विजय सिह को हराने वाली प्रज्ञा ठाकुर भी शामिल हैं। उप्र और पश्चिम बंगाल से सबसे ज्यादा महिलाएं जीती हैं। हालांकि आठ ऐसे राज्य भी हैं, जहां से एक भी महिला चुनाव नहीं जीती है। इस बार कुल 724 महिलाएं मैदान में थीं, लेकिन 78 ही जीत पाईं। इसके साथ ही संसद में अब महिलाओं का प्रतिशत बढ़कर 28 हो गया है।
देश के निर्माण में आधी आबादी की सशक्त भूमिका रही है और वह पुरुषों से बेहतर घर चलाती हैं।' साफ है, यह बहाना विधेयक टालने के लिए बनाया गया। राज्यसभा से पारित इस विधेयक को कानूनी रूप लेने के लिए अभी लोकसभा और पन्द्रह राज्यों की विधानसभाओं का सफर तय करना होगा। इसके कानून बनते ही ऐसे कई दोहरे चरित्र के चेहरे हाशिये पर चले जाएंगे, जो पिछड़ी और मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण देने के प्रावधान के बहाने, गाहे-बगाहे बीते 21 साल से गतिरोध पैदा किए हुए हैं। महिला आरक्षण विधेयक का मूल प्रारूप संयुक्त मोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान गीता मुखर्जी ने तैयार किया था। लेकिन अक्सर इस विधेयक को लोकसभा सत्र के दौरान अंतिम दिनों में पटल पर रखा गया। इससे यह संदेह हमेशा बना रहा कि एचडी देवगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल, अटलबिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की सरकारें इसे टालती रही हैं। विधेयक से असहमत दलों की प्रमुख मांग थी, '33 फीसदी आरक्षण के कोटे में पिछड़े और मुस्लिम समुदायों की महिलाओं को विधान मंडलों में आरक्षण का प्रावधान रखा जाए।' संविधान के वर्तमान स्वरूप में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के समुदायों को आरक्षण की सुविधा हासिल है। ऐसे में पिछड़े वर्ग की महिलाओं को लाभ कैसे संभव है? हमारे लोकतांत्रिक संविधान में धार्मिक आधार पर किसी भी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। लिहाजा इस बिना पर मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण की सुविधा कैसे हासिल हो सकती है?
उप्र और पश्चिम बंगाल से सबसे ज्यादा महिलाएं सांसद बनी