एक साथ चुनाव का विचार नरेंद्र मोदी का कोई सर्वथा मौलिक विचार हो। 1952 से लेकर 1967 तक चार बार लोकसभा व विधानसभा चुनाव पूरे देश में एक साथ ही हुए हैं। इंदिरा गांधी का केंद्रीय सत्ता पर वर्चस्व कायम होने के बाद राजनीतिक विद्बेष व बेजा हस्तक्षेप के चलते इस व्यवस्था में बदलाव आना शुरू हो गया। इंदिरा गांधी को विपक्ष की जो सरकारें पसंद नहीं आती थीं, उसे वे कोई न कोई बहाना ढूंढकर बर्खास्त कर देती थी। नतीजतन, मध्यावधि चुनावों की परिपाटी पड़ती चली गई। इससे राज्यों में अलग-अलग समय पर चुनाव कराने की बाध्यता निर्मित हो गई। फलत: ऐसा अवसर आ गया कि देश में कहीं न कहीं चुनाव की डुगडुगी बजती रहती है। देश का लगभग 88 करोड़ मतदाता किसी न किसी चुनाव की उलझन में जकड़ा रहता है। चूंकि संविधान में लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने का उल्लेख तो है लेकिन दोनों चुनाव एक साथ कराने का हवाला नहीं है। संविधान में इन चुनावों का निश्चित जीवनकाल भी नहीं है। वैसे यह कार्यकाल पांच वर्ष के लिए होता है लेकिन बीच में सरकार के अल्पमत में आ जाने के कारण या किसी अन्य कारण के चलते सरकार गिर या गिराई जा सकती है। लिहाजा, एक साथ चुनाव कराने की संभावना तब बनेगी, जब संविधान में संशोधन किए जाएं, जिनका किया जाना कठिन जरूर हैै लेकिन नामुमकिन नहीं है।
देश में मानव संसाधन सबसे बड़ी पूंजी है। गोया, यदि बार-बार चुनाव की स्थितियां बनती हैं तो मनुष्य का ध्यान बंटता है और समय व पूंजी का क्षरण होता है। इस दौरान आदर्श आचार संहिता लागू हो जाने के कारण प्रशासनिक शिथिलता दो-ढाई महीने तक बनी रहती है, फलत: विकास कार्य और जन-कल्याणकारी योजनाएं प्रभावित होती हैं। इन सब मुद्दों के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दूसरे कार्यकाल के आरंभ से ही 'एक देश, एक चुनाव' की पैरवी कर रहे हैं तो इसे विपक्षी दलों को गंभीरता से लेने की जरूरत है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविद ने भी इस मुद्दे को अपने अभिभाषण में शामिल करके एक तरह से इसकी जरूरत को ही रेखांकित किया है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी द्बारा बुलाई बैठक में कांग्रेस समेत चौदह राजनीतिक दलों द्बारा बाहिष्कार यह दर्शाता है कि लोकसभा चुनाव में बड़ी हार के बावजूद वे नकारात्मक प्रवृत्ति छोड़ने तैयार नहीं हैं।
देश प्रत्येक छह माह बाद चुनावी मोड पर आ जाता है, लिहाजा सरकारों को नीतिगत फैसले लेने में तो अड़चनें आती ही हैं, दूसरे नीतियों को कानूनी रूप देने में अतिरिक्त विलंब भी होता है। यह तर्क अपनी जगह जायज है। इसलिए जिन दलों ने इस बैठक का बहिष्कार किया, उन्हें भविष्य में आत्म-मंथन करने की जरूरत है, क्योंकि इस मुद्दे में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे केवल सत्तारूढ़ दल को ही फायदा हो। इससे अच्छा है दूरी बनाने वाले दल बैठक में भागीदारी करते और सीपीआई व सीपीएम की तर्ज पर पूछते कि यह कैसे संभव होगा। इसे अमल में लाने का तरीका क्या होगा?
लेकिन प्रधानमंत्री यदि निर्विवाद सोच के साथ इस दिशा में कोई पहल कर रहे हैं, तो बैठक का बहिष्कार उचित नहीं है। इस बहिष्कार में वे दल भी शामिल रहे, जिन्होंने एक समय विधि आयोग के इस सुझाव का स्वागत किया था। विधि आयोग ही नहीं निर्वाचन आयोग, नीति आयोग और संविधान समीक्षा आयोग तक इस मुद्दे के पक्ष में अपनी राय दे चुके हैं।
कुछ विपक्षी दल एक साथ चुनाव के पक्ष में शायद इसलिए नहीं है क्योंकि उन्हें आशंका है कि ऐसा होने पर जिस दल ने अपने पक्ष में माहौल बना लिया तो केंद्र व ज्यादातर राज्य सरकारें उसी दल की होंगी। जैसे कि सत्रहवीं लोकसभा के जो हाल ही में चुनाव संपन्न हुए हैं, उसमें राष्ट्रवाद की हवा के चलते राजग को बड़ा जनादेश मिला। ऐसे में यदि विधानसभाओं के भी चुनाव हुए होते तो कांग्रेस समेत क्षेत्रीय दलों का भी सूपड़ा साफ हो गया होता? हालांकि ऐसा हुआ नहीं। इस बार लोकसभा चुनाव के साथ ओडिशा, आंध्र-प्रदेश, सिक्किम, तेलंगाना और अरुणाचल प्रदेश में भी चुनाव हुए थे, जिनके परिणामों में भिन्नता देखने में आई है। लिहाजा यह दलील बेबुनियाद है कि एक साथ चुनाव में क्षेत्रीय दल नुकसान में रहेंगे।
वर्तमान में अमेरिका सहित अनेक ऐसे देश हैं, जहां एक साथ चुनाव बिना किसी बाधा के संपन्न होते हैं। भारत में भी यदि एक साथ चुनाव की प्रक्रिया अपनाई जाती है तो केंद्र व राज्य सरकारें बिना किसी दबाव के देश व लोकहित में फैसले ले सकेंगी। सरकारों को पूरे पांच साल विकास व सुशासन को सुचारू रूप से लागू करने का अवसर मिलेगा। इसलिए विपक्षी दलों को बाहिष्कार की बजाय राष्ट्रहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की जरूरत है।
अनेक ऐसे देश हैं, जहां एक साथ चुनाव बिना किसी बाधा के संपन्न होते है