राजनीतिक दलों में ब्राह्मणों के राजनीतिक महत्व पर खूब चिंतन हो रहे हैं
पंडित जिस दिन बिगड़ गये इतिहास पुराना खोलेंगे,
धाक हमारी देखकर गुँगे भी ज़य ज़य ब्राह्मण बोलेगे।
त्रिनाथ के शर्मा
लखनऊ। अखंड ब्रह्माण्ड में यदि किसी समाज का मानवता को सबसे ज्यादा योगदान हैं तो वह ब्राह्मण समाज का हैं। ब्राह्मण समाज ने अपने त्याग और ज्ञान के दम पर सभ्यता की स्थापना की और उस सभ्यता से उत्पन्न हुवे अशभ्यता से मानवता की सुरक्षा भी की। कभी सबसे ज्यादा सम्मान्नित और अहिंसा परमोधर्मः का पाठ साथ ही धर्महिंसा तथैव च का पाठ पढ़ाने वाला ब्राह्मण समाज आज षड़यंत्र के ऐसे जाल में जकड़ चूका हैं की उससे निकलने के लिए एकता का जोड़ लगाना पड़ेगा।प्राचीन काल से ही भारत में ब्राह्मण समाज को हिन्दू धर्म में काफी सामान मिलता आरहा है और आगे भी मिलता रहेगा ब्राह्मण भारत में आर्यों की समाज व्यवस्था अर्थात् वर्ण व्यवस्था का सबसे ऊपर का वर्ण कहलाता हैं। ब्राह्मण समाज का इतिहास प्राचीन भारत के वैदिक धर्म से आरंभ होता हैं ।
आखिर क्यों? ब्राह्मण ही सर्वदा से लक्ष्य पर क्यों है? इसके भी कई पक्ष हैं। दरअसल जबतक ब्राह्मण मात्र वेदपाठी और पुरोहित बनकर रहता है, वह सभी के लिए बड़ा ही सम्माननीय पूज्य और देवदूत होता कहलाता है और जैसे ही वह अपने बुद्धिकौशल से राजनीतिक या सामाजिक जीवन में सक्रिय हुआ तो उसके प्रतिद्वंद्वियों की नहीं बल्कि अकारण शत्रुओं लाइन लग जाती है, इसके बावजूद वह सभी पर भारी रहता है, आगे ही क्यों रहता है, उसका आगे होना जल्दी से किसी को नहीं पचता और उसकी मौजूदगी एक बड़ी चुनौती मान ली जाती है, जिसे वर्चस्व की लड़ाई कहा जाता है, जो आज सर्वत्र दिखाई देती है। देखा गया है कि ब्राह्मण की बौद्धिक शक्तियों और रणनीतियों का सामने आकर नहीं, बल्कि छद्म तरीके से मुकाबला किया जाता है। यह भी सच्चाई हैकि कोई ग़ैर-ब्राह्मण, ब्राह्मण को जमकर गरियाकर, हत्या करके, अपमान करके या उसकी बहु-बेटी या बहन को फंसाकर उठाकर उससे कैसे भी शादी रचाकर, शारीरिक शोषण या बलात्कार करके या चाय का जूंठा प्याला उठवाकर अत्यंत प्रफुल्लित होता है, गौरवांवित होता है। मायावती की तरह ब्राह्मणों को सार्वजनिक मंच से गालियां देकर जनाधार बढ़ाया जाता है तो कोई शालीनता से भी उसके महत्व का सम्मान करके अपने लिए सफलताएं अर्जित करता है। फिर भी अपवाद को छोड़कर हिंदुस्तान के किसी भी राजनीतिक दल समुदाय या नेता का ब्राह्मण के बिना गुजारा नहीं है।
उत्तर भारत के संदर्भ में पिछले तीन दशक में जातीय समुदायों, राजनीतिक दलों के नेतृत्व और उनके कतिपय नेताओं में ब्राह्मणों को देश की मुख्यधारा से अलग-थलग करने और उनकी घोर उपेक्षा करने के अनेक अपमानजनक प्रयोग देखे गए हैं, उनके भारी विरोध के बावजूद ब्राह्मण समुदाय राजनीति में नहीं तो सरकारी और गैरसरकारी सेवाओं में आज भी शीर्ष पर बना हुआ है। उन्हीं राजनीतिक दलों या समुदायों में अब फिर ब्राह्मण की ओर लौटने और उनके कसीदे पढ़ने की होड़ देखी जा रही है, उनमें कस्तूरी खोजी जा रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनवाने में ब्राह्मण समुदाय का योगदान किसी से छिपा नहीं है और विरोध या उपेक्षा से कुपित होकर ब्राह्मण अपनी राष्ट्रवादी प्रकृति के कारण जल्दी से भाजपा से अलग होने वाला भी नहीं है, मगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ शासन में जो राजनीतिक प्रशासनिक और जातीय वातावरण विकसित हो रहा है, उससे ब्राह्मण सहनशीलता के बावजूद असहज दिख रहा है। योगी आदित्यनाथ पर दूसरे ही आरोप लग रहे हैं कि वे हर जगह ब्राह्मणों को हिट करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के प्रमुख राजनीतिक दलों सपा बसपा और कांग्रेस ने ही योगी सरकार में ब्राह्मणों की घोर उपेक्षा एवं उनके उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगाकर उन्हें अपने पक्ष में करने का अभियान चला दिया है और भाजपा के भीतर भी यह मुद्दा खूब गरमा रहा है एवं अंदर ही अंदर योगी विरोधी स्वर फूट रहे हैं।
कैसी विडंबना है कि आज फिर जहां-तहां ब्राह्मणों की प्रचंड ताकत और काबलियत के कसीदे पढ़े जा रहे हैं। राजनीतिक दलों को ब्राह्मणों में कस्तूरी नज़र आने लगी है, उनसे बड़ी सहानुभूति जताकर उन्हें गले लगाया जा रहा है, जबकि ब्राह्मण तो प्राचीनकाल से ही भारत की राजनीति, सत्ता और सामाजिक जीवन का सिरमौर एवं मुख्य कारक रहा है, समय और आवश्यकतानुसार उसके रूप एवं अवसर जरूर अदलते-बदलते रहे हैं। इस सच्चाई से क्या किसी को इंकार है कि भारी प्रतिरोध के बावजूद ब्राह्मण ने हर अवसर पर अपने बुद्धि कौशल का लोहा मनवाया है। सचिव सलाहकार और गुरू के रूपमें ब्राह्मण की भूमिका की किसी के पास कोई काट है? अंग्रेज़ हों या भारतीय समुदाय सभी विभिन्न स्थितियों में ब्राह्मण में अपनी गहरी दिलचस्पी रखते आए हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में यह क्या हो रहा है? कहने वाले कह रहे हैं कि गोरखपुर में क्षत्रियों की जातीय और आध्यात्मिक गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद ब्राह्मणों को ठीक करने निकले हैं? जिनकी कार्यप्रणाली एवं कार्यशैली की दिशा और दशा साफ दिखाई पड़ रही है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुलिस प्रशासनिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में ब्राह्मण विरोधी कार्यशैली की सबसे ज्यादा चर्चा और प्रचार भी ये ही कर रहे हैं। अखिलेश यादव, मायावती ने तो प्रेस कांफ्रेंस करके यहां तक कह डाला है कि राज्य में ब्राह्मणों का उत्पीड़न हो रहा है और वे भगवान परशुराम की मूर्तियां लगवाएंगे। कांग्रेस नेता प्रियंका वॉड्रा गांधी भी यह मुद्दा उठा चुकी हैं। भाजपा हाईकमान को यह सब बातें मालूम नहीं होंगी, यह कोई भी मानने को तैयार नहीं होगा। भाजपा योगी आदित्यनाथ के ही नेतृत्व में उत्तर प्रदेश का अगला विधानसभा चुनाव कराने की तरफ बढ़ती नज़र आ रही है, मगर यह भी कहा जा रहा है कि केवल हिंदुत्व पर मुखर होना और श्रीराम मंदिर निर्माण ही उत्तर प्रदेश में भाजपा की वापसी गारंटी नहीं है, बल्कि योगी आदित्यनाथ के सुशासन और सभी को साथ लेकर चलने की भी जरूरत है, जिसे वह अपनी कार्यशैली से सिद्ध नहीं कर पाए हैं। आज उनका उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों से टकराव एक बड़ा मुद्दा बन गया है। योगी आदित्यनाथ पर ब्राह्मण विरोधी टैग इसलिए भी जोर पकड़ गया है, क्योंकि एक तो राज्य में कुछ ऐसी हत्याएं हुई हैं, जिनमें ब्राह्मणों को लक्ष्य बनाया गया है, भले ही उनके कारण जो भी बताए जाते हैं और दूसरी बात यह है कि योगी आदित्यनाथ जिस गोरक्षनाथ पीठ से आते हैं, वह आध्यात्मिक होने के साथ ही साथ एक प्रमुख जातीय पीठ भी कही जाती है, जिसका महंत या पीठाधीश्वर केवल क्षत्रिय ही होता है, होता आया है एवं स्वयं योगी आदित्यनाथ वहां इसी परिवेश में महंत और हिंदुत्व एवं वह भी क्षत्रिय राजनेता के रूप में स्थापित हुए हैं, इसीलिए वे मुख्यमंत्री होकर भी आजतक इस पीठ से बाहर नहीं निकल पाए हैं, उनकी यह प्राथमिकता हर जगह दिखाई पड़ती है।
कहा जाता है कि गोरखपुर लोकसभा का उपचुनाव भी भाजपा इसी कारण हारी थी क्योंकि वहां उनकी प्राथमिकता कुछ और ही थी। देश के कुछ राज्यों में हुए चुनावों में भी उनके प्रचार का भाजपा को कोई लाभ नहीं मिला था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आज अपने ऊपर लगे आरोप से चाहे कितना ही इंकार करें, लेकिन अनेक मामलों में जनसामान्य में उनपर घोर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप स्थापित भी हो रहा है। यही बात उनके विरोध में जा रही है, जो भाजपा के लिए अब बड़ी चिंता का विषय बन चुकी है। उत्तर प्रदेश में मौजूदा समय में उनकी प्रशासनिक विफलताओं के कारण और भी दूसरे मुद्दे सर उठाए हुए हैं, जिन्हें दूसरे दल भाजपा के खिलाफ उछाले घूम रहे हैं। सभी राजनीतिक दल कह रहे हैं कि स्थानीय प्रशासन योगी आदित्यनाथ के नियंत्रण से बाहर हो चुका है, पुलिस एवं प्रशासन से भाजपा विधायकों कार्यकर्ताओं एवं जनसामान्य का टकराव बढ़ता ही जा रहा है, यद्यपि यह भी कहा जाता है कि योगी आदित्यनाथ पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है, तथापि इससे भाजपा सरकार की लोकप्रियता में कहीं कोई वृद्धि भी नहीं देखी जा रही है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने मौका देखकर ब्राह्मणों की हत्याओं और उनके अपमान की आड़ में भाजपा के ही खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इन दलों के नेतृत्व ने भी अपने शासनकाल में ब्राह्मणों की कोई कम उपेक्षा नहीं की है, इसलिए इनको भी ब्राह्मणों की हत्याओं, उपेक्षा और उत्पीड़न पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं बनता है।
उत्तर प्रदेश में जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव करीब आ रहे हैं, इन राजनीतिक दलों में ब्राह्मणों के राजनीतिक महत्व पर खूब चिंतन हो रहे हैं, बल्कि जिन्हें कल तक मनुवादी कहकर हांसिये पर धकेला गया था, आज उनमें ‘कस्तूरी’ नज़र आने लगी है। विधानसभा चुनाव के लिए ब्राह्मणों का समर्थन पाने के लिए अभी से गठजोड़ की होड़ लग गई है, इसलिए उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य बिना चुनाव के ही हाई प्रोफाइल नज़र आ रहा है। अपने महत्व से अभिभूत ब्राह्मणों का भी ‘राजयोग’ फिर से चमक उठा है। ब्राह्मणों के खिलाफ जातीय नफरत पैदा करके खड़ी हुई बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती के लिए भी आखिर यही ब्राह्मण सत्ता के कारक बन चुके हैं और इन्हीं ब्राह्मणों की उपेक्षा के कारण मायावती सत्ता से बाहर भी हुईं। यही हाल मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की सरकारों का भी हुआ है। आज ये फिर ब्राह्मणों का सहारा लेकर सत्ता पर कब्जा करने की राजनीति करने निकले हैं। बसपा ने तो ब्राह्मणों के समर्थन के लिए अपने यहां एक कॉडर ही स्थापित किया हुआ है। भाजपा ब्राह्मणों को अपना परंपरागत सहयोगी और समर्थक मानती ही रही है, लेकिन इस प्रकार उपेक्षित होकर वे कितने समय भाजपा के साथ रह पाएंगे यह भी एक सवाल खड़ा हो गया है? कांग्रेस ब्राह्मणों को रिझा रही है, मगर उसके पास कद्दावर ब्राह्मण नेता कोई नहीं है। सपा ने अपने को किसी सनातन ब्राह्मण समाज के संगठन से भी जोड़ा हुआ है, लेकिन सपा की तुष्टिकरण की नीति के कारण ब्राह्मण सपा के साथ असहज रहता है। इस कारण सपा के ब्राह्मणों को जोड़ने के प्रयास संशयात्मक दिखाई देते हैं। सपा के लिए नीतिगत रूपसे यह अत्यंत विचारणीय विषय है। परशुराम जयंती पर सपा में ब्राह्मणों का जमावड़ा कोई गारंटी नहीं देता हैकि विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण सपा के साथ खड़ा होगा। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें सपा नेतृत्व ने ब्राह्मणों की उपेक्षा की है।
माना जाता है कि समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो हमेशा ब्राह्मणों से नफरत और असहज महसूस करता आया है, बल्कि उसका पूरा सामाजिक ताना-बाना और अस्तित्व ही ब्राह्मण विरोध पर टिका है। उत्तर भारत में और विशेष रूपसे यूपी में ब्राह्मण विरोध की कमान कांशीराम और मायावती के हाथ में ही रही है, लेकिन आज उनके तौर तरीके बदल गए हैं। इनका ब्राह्मणों के खिलाफ अकारण आक्रामक संघर्ष का एक इतिहास है। इस विषय पर इतिहासकारों, राजनीतिज्ञों, सामाजिक चिंतकों ने समय-समय पर अपने-अपने नजरिये से खूब लिखा है। ब्राह्मण हमेशा से अपनी सामाजिक कूटनीतिक राजनीतिक संरचना और उसकी उपयोगिता के कारण दूसरों का ध्यान खींचता आया है। इस समय बसपा अध्यक्ष मायावती के ब्राह्मण प्रेम से बड़ा ज्वलंत उदाहरण और क्या होगा? और ब्राह्मणों के लिए सपा का लोक दिखावा सबके सामने ही है। उत्तर-दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के खिलाफ बड़े-बड़े आंदोलन हुए हैं। इन्हीं में से कईयों ने बाद में ब्राह्मणों का सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक महत्व स्वीकार करते हुए ऐसे आंदोलनों से किनारा भी किया है। ऐसा करते समय आलोचकों ने ब्राह्मणों के गुणों की आदर्श व्याख्याएं भी की हैं। अतीत में देखें तो उत्तर-दक्षिण भारत में जातिभेद का पहला शिकार ब्राह्मण ही हुआ है, इसलिए इसका विरोध आंदोलन बना, लेकिन आज तक यह सिद्ध नहीं किया जा सका है कि ब्राह्मण ही रंगभेद या अन्य तरीके से पक्षपात या दूसरों पर अत्याचार के लिए दोषी हैं।
लंबे विरोध के बाद ब्राह्मण विरोधी ताकतों में उनके लिए सकारात्मक परिवर्तन आया है। सारे राजनीतिक दलों में ब्राह्मणों का विरोध करते-करते अचानक उनका समर्थन हासिल करने या उन्हें चुनाव लड़ाने की हवा सी चल पड़ी है। भाषणों की भाषा ही बदल गई है। राजनीतिक टीकाकारों का अभिमत है कि ब्राह्मण न तो मायावती की नीतियों का आंख मूंदकर समर्थन कर सकता है और ना अखिलेश यादव के साथ आंख मूंदकर चल सकता है। देश में जातीय राजनीति को लेकर भारी राजनीतिक उथल-पुथल है और उत्तर प्रदेश में मौजूदा राजनीतिक हालात जिस तरफ जा रहे हैं, उनकी असली परीक्षा आगामी विधानसभा चुनाव में हो ही जाएगी। बहरहाल ब्राह्मण हमेशा से एक जटिल चुनौती कायम किए हुए है। ब्राह्मणों को लेकर योगी आदित्यनाथ के बारे में जैसा कहा जा रहा है, यदि वह सच है तो यह भी एक सच ही है कि कोई ब्राह्मण का विकल्प नहीं दे पाया है। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार में ब्राह्मणों की उपेक्षा का आरोप भाजपा के लिए एक समस्या की ओर बढ़ रहा है, क्योंकि भाजपा इस आरोप को ओढ़कर नहीं चल सकती, क्योंकि उसका लक्ष्य केंद्र है। भाजपा हाईकमान तक यह मामला पहुंचा हुआ है और देखना है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा किस प्रकार ब्राह्मणों की नाराज़गी दूर करती है।