कश्मीर संभाग में सभी सीटें मुस्लिम बहुल हैं, जहां भाजपा अभी तक अपना आधार नहीं बढ़ा पाई है

मरनाथ यात्रा की समाप्ति के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर में राज्य के विधानसभा चुनावों की घोषणा हो सकती है।  इस वर्ष के अंत में चुनाव कराने की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है क्योंकि राष्ट्रपति शासन की जो अवधि छह माह के लिए बढ़ाई गई थी, वह दिसम्बर में समाप्त हो जाएगी। उसे बढ़ाने के लिए एकबार फिर संसद के दोनों सदनों में इसकी मंजूरी लेनी पड़ेगी। पिछले दिनों भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राममाधव जब राज्य में आए तो उन्होंने भी इस वर्ष के अंत तक चुनाव कराने की बात की थी। सभी राजनीतिक दल इन चुनावों के लिए जोर-शोर से तैयारियां कर रहे हैं। इस समय राज्य में अमरनाथ यात्रा चल रही है तथा सभी राजनीतिक दल अमरनाथ यात्रा की समाप्ति का इंतजार कर रहे हैं ।


वहीं, भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव में तीन सीटों पर विजय प्राप्त की थी। इससे उसके हौसले बुलंद हैं, क्योंकि लोकसभा चुनाव में भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन को प्रचंड बहुमत मिला। भाजपा में इस समय सदस्यता अभियान चल रहा है। भाजपा की निगाहें उन सभी मतदाताओं को सदस्य बनाना है, जिन्होंने लोकसभा चुनाव में उनके पक्ष में मतदान किया था। भाजपा राज्य में सत्ता प्राप्ति के प्रयास में है, उसमें सबसे बड़ी अड़चन आ रही है जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सीटें, जहां 87 सीटें हैं और सत्ता के लिए 44 सदस्य चाहिए। जम्मू संभाग में 37 विधानसभा सीटें हैं, जबकि कश्मीर संभाग 46 सीटें हैं। कश्मीर संभाग में सभी सीटें मुस्लिम बहुल हैं, जहां भाजपा अभीतक अपना आधार नहीं बढ़ा पाई है। जबकि जम्मू प्रांत में भी 8 सीटें ऐसी हैं, जिनमें मुस्लिम मतदाता काफी अधिक हैं। लद्दाख में चार सीटें हैं, जहां भाजपा को दो से अधिक सीटें मिलने की उम्मीद कम है क्योंकि वहां भी दो सीटें ऐसी हैं, जहां पर मुस्लिम मतदाता काफी अधिक हैं। इस प्रकार भाजपा का आंकड़ा 30 से आगे होता नहीं दिखता। सत्ता तक पहुंचने के लिए उसे 14 सीटें कम रह जाने का अंदेशा है इसलिए भाजपा प्रयास कर रही है कि राज्य में राज्यपाल द्वारा परिसीमन आयोग लागू किया जाए, जिससे जम्मू-कश्मीर की सीटें तुलनात्मक रूप से बराबर हों ताकि भविष्य में जम्मू संभाग का भी मुख्यमंत्री बन सके। इसके लिए अगले वर्ष तक चुनाव टालने की योजना है।


पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 25 सीटों पर जीत हासिल की थी। भाजपा इसबार सरकार बनाने का इरादा रखती है इसलिए वह मतदाताओं को, विशेषकर जम्मू प्रांत के मतदाताओं को अपने पक्ष में करना चाहती है। इसके लिए धारा 370 व 35ए समाप्त करना तथा विधानसभा सीटों का परिसीमिन करके जम्मू की विधानसभा सीटें बढ़ाना है ताकि सीटों का असंतुलन समाप्त किया जा सके। धारा 370 समाप्त करना संभव नहीं है क्योंकि उसके लिए राज्य की विधानसभा तथा विधान परिषद् दोनों में दो तिहाई बहुमत से उसे पास कराना होगा। 35ए का मुद्दा न्यायालय के विचाराधीन है जबकि परिसीमन 2026 से पहले लागू नहीं होगा। परिसीमन आयोग ही एक मुद्दा है, जिससे भाजपा को लाभ मिल सकता है। भाजपा चाहती है कि राज्य में नए चुनाव परिसीमन के उपरांत हों ताकि उसकी सीटों में वृद्धि हो सके। जबकि अन्य दल वर्तमान परिस्थितियों में ही चुनाव करवाने के पक्ष में हैं।


राज्य में चार राजनीतिक दल ही सक्रिय हैं। इनमें राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस। क्षेत्रीय दलों से नेशनल कांफ्रेंस व पीडीपी। कांग्रेस केंद्र में कमजोर होती जा रही है, जिसका प्रभाव इस राज्य में देखने को मिल रहा है, जहां अनिश्चिता की स्थिति बनी हुई है। वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। लोकसभा चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस से कांग्रेस का समझौता हुआ था। इसके बावजूद कांग्रेस एक सीट नहीं जीत सकी। इस बात को देखते हुए नेशनल कांफ्रेंस ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबधंन से इनकार कर दिया है। पीडीपी-भाजपा गठबंधन जब से खत्म हुआ, पीडीपी में बिखराव शुरू हो गया। पार्टी के कई वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़ते चले जा रहे हैं। हाल ही में पुलवामा के जिला प्रधान एवं पूर्व मंत्री मोहम्मद खलील बंद जो पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल थे, उन्होंने पार्टी छोड़ दी। इससे पहले पार्टी छोड़ने वालों में पूर्व मंत्री बशारत बुखारी, अल्ताफ बुखारी, जावेद मुस्तफा मीर, आबिद अंसारी, इमरान रजा अंसारी प्रमुख हैं। लिहाजा, विधानसभा चुनाव में पार्टी के इस बिखराव का असर पड़ सकता है। इन नेताओं के अतिरिक्त कई अन्य नेता भी पार्टी से नाराज चल रहे हैं। वह भी ऐसे अवसर की तलाश में हैं, जब पार्टी को अलविदा कह सकें।


जहां तक नेशनल कांफ्रेंस का प्रश्न है, इस समय उसके हौसले काफी बुलंद हैं। पार्टी चुनाव की तिथियों की घोषणा का इंतजार कर रही है। नेशनल कांफ्रेंस का टिकट प्राप्त करने वालों की सूची काफी लम्बी है। पीडीपी के कई नेता नेशनल कांफ्रेंस में शामिल हुए हैं, जिससे पार्टी को काफी मजबूती मिली है। इस समय फारूक अब्दुल्ला ने कांग्रेस से दूरियां बनानी शुरू कर दी हैं। पार्टी अपने ही बलबूते पर राज्य में सरकार बनाने की संभावनाएं देखते हुए काफी सक्रिय है। हालांकि यह भी तथ्य है कि 1977 के बाद राज्य में कोई भी पार्टी अपने दम पर सरकार नहीं बना सकी। सभी दलों को सरकार बनाने के लिए किसी न किसी से गठजोड़ करना पड़ा है। यह अलग बात है कि किसी का भी गठजोड़ ज्यादा दिनों टिक नहीं सका इसलिए हर पार्टी अपने विकल्प खुले रखकर ही चुनाव लड़ती आई है। इसबार भी ऐसा ही होने की संभावना है। इस समय सभी दल पवित्र अमरनाथ यात्रा की समाप्ति का इंतजार कर रहे हैं, उसके बाद राजनीतिक गतिविधियों के जोर पकड़ने की उम्मीदें हैं।