...अब पाकिस्तान सुरक्षित देश नहीं है अल्पसंख्यकों के लिए


त्रिनाथ कुमार शर्मा 


...अब पाकिस्तान सुरक्षित देश नहीं है अल्पसंख्यकों के लिए


पाक में धर्मांतरण एक निरंतर प्रक्रिया में बदल गया है


दुनिया भर का सिख समुदाय नाराज 


लड़की धर्मांतरण के बाद ''पत्नी'' ही बनाई जाती है ''बहन या बेटी'' नहीं ?
दुनिया जब मोबाइल की माया में सिमटकर छोटी होती जा रही है और मनुष्य चंद्रमा एवं मंगल पर रहने की तैयारियों में जुटा है, उस दौर में धार्मिक कट्टरता के बहाने पाकिस्तान में अल्पयंख्यकों के अस्तित्व को ही खत्म करने का सिलसिला समझ से परे है। सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी परंपराओं के खोल से पाक बाहर निकलता नहीं दिख रहा है क्योंकि यहां अल्पसंख्यकों के साथ बहुसंख्यकों द्बारा किए जा रहे अत्याचारों को रोकने में इमरान खान सरकार पूरी तरह नाकाम नजर आ रही है। इसके उलट यह एहसास हो रहा है कि वहां कट्टपंथियों के दबाव के चलते कानून और नैतिकता के मापदंड बौने साबित हो रहे हैं। 
अब पाक में मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार और आम लोग भी इस प्रकार की घटनाओं पर अपना आक्रोश व्यक्त करने लगे हैं। वे अपनी ही सरकार को अल्पसंख्यक समुदाय की सुरक्षा करने में असफल रहने का आरोप लगा रहे हैं। इसी कारण अब पाक में धर्मांतरण को रोकने के लिए कानून बनाने की मांग तेज़ हो गई है। इससे पहले भी 2016 में सिध विधानसभा में धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने का बिल पास हुआ था लेकिन कट्टरपंथी संगठनों के विरोध के चलते लागू नहीं हो पाया था। लेकिन अब मौजूदा परिस्थितियों में इमरान खान और उनका ''नया पाकिस्तान'' धर्मांतरण जैसे इस नाजुक मुद्दे पर अपने ही द्बारा जगाई गई पाक आवाम और खास तौर पर वहां के अल्पसंख्यकों की उम्मीदों पर कितना खरा उतरते हैं यह तो समय ही बताएगा। लेकिन उन्हें इस प्रकार नाबालिग और कम उम्र की बच्चियों के धर्मांतरण से उठने वाले कुछ सवालों के जवाब तो देने ही होंगें जैसे, आखिर हर बार सिर्फ लड़कियां या महिलाएं ही क्यों ''अपनी मर्ज़ी'' से धर्मांतरण करती हैं कभी कोई लड़का या पुरूष क्यों नहीं? धर्मांतरण की मंज़िल आखिर हर बार ''निकाह'' ही क्यों होती हैं? क्यों हर बार लड़की धर्मांतरण के बाद ''पत्नी'' ही बनाई जाती है ''बहन या बेटी'' नहीं? क्यों इन लड़कियों को धर्मांतरण के बाद हमेशा ''पति'' ही मिलता है भाई या पिता नहीं? और आखिरी सवाल 18 साल से कम उम्र के किसी आज़ाद युवा को अपने देश की सरकार चुनने का अधिकार नहीं है लेकिन एक ''अपहृत'' नाबालिग लड़की को धर्मांतरण और निकाह करके अपनी पहचान बदल लेने का अधिकार है ? इन सवालों के ईमानदार उत्तर में ही धर्मांतरण की समस्या का समाधान छुपा है। 
पाक में धर्मांतरण एक निरंतर प्रक्रिया में बदल गया है। पाक के पंजाब प्रांत में गुरूद्बारा ननकाना साहिब के पास सिख ग्रंथी की बेटी के जबरन धर्म परिवर्तन और निकाह का मामला सामने आया है। वीडियो के जरिए इस लड़की ने परिजनों से मुक्ति की गुहार लगाई है। घटना से न केवल पाकिस्तान में रहने वाले अल्पसंख्यकों का गुस्सा भड़का हुआ है, बल्कि दुनिया भर का सिख समुदाय नाराज है। परिजनों ने बच्ची को अपहर्ताओं के चंगुल से मुक्त कराने के लिए प्रधानमंत्री इमरान खान और सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से मदद मांगी। लड़की के पिता ने पंजाब गर्वनर के घर के सामने आत्मदाह की धमकी दी है। इस मामले के तूल पकड़ने के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार उस्मान बुजदार ने जांच के आदेश दिए। पाक में जबरन धर्मांतरण के चलते महज आठ हजार सिख समुदाय के लोग शेष बचे हैं। बंटवारे के समय पाक में जो 22 प्रतिशत हिदू थे, वे मात्र दो प्रतिशत रह गए हैं। जैन, बौद्ध और ईसाई समुदायों के साथ भी धर्मांतरण के लिए कुछ गिरोह बर्बरता अपनाए हुए हैं। 


इसके पहले यहां के सिध प्रांत में होली के दिन दो नाबालिग हिदू लड़कियों के अपहरण और फिर जबरन धर्मांतरण कराकर निकाह का मामला चर्चा बना था। इन स्थितियों से पता चलता है कि पाक अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षित देश नहीं है। यहां गैर सुन्नी शिया और अहमदिया मुसलमान भी कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। गैर मुस्लिमों पर अत्याचार का आधार यहां अस्तित्व में आया कठोर ईश निदा कानून है। इस कानून का सबसे अधिक दुरुपयोग हिदुओं, सिख व ईसाईयों पर होता है। इस कारण पाकिस्तान से हिदु लगातार पलायन भी कर रहे हैं, जो भारत के लिए चिता का कारण है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के खिलाफ दहशतगर्दी का माहौल कट्टरपंथियों द्बारा सोची-समझी साजिश है। साजिश के तहत वहां पहले अल्पसंख्यकों की नाबालिग किशोरियों का अपहरण किया जाता है, फिर उनसे कोरे कागज पर दस्तखत कराए जाते हैं। जिसमें प्रेम के प्रपंच और इस्लाम के कबूलनामे की इबारत होती है। इसके बाद उसका किसी मुस्लिम लड़के से निकाह करा दिया जाता है। मजबूरी की यही दास्तान, अल्पसंख्यक परिवारों की कई लड़कियां बयान कर चुकी हैं। पाकिस्तान का मीडिया और मानवाधिकार आयोग भी कर चुका है।
पाकिस्तान के प्रसिद्ध अखबार डॉन ने अपने संपादकीय में लिखा है कि अल्पसंख्यक व्यापारियों व उनकी बालिकाओं के बढ़ रहे अपहरण, दुकानों में की जा रही लूटपाट, उनकी संपत्ति पर जबरन कब्जे और धार्मिक कट्टरता के माहौल ने अल्पसंख्यक समुदाय को मुख्यधारा से अलग कर दिया है। पाकिस्तान में जारी इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वहां के मानवाधिकार आयोग ने भी नाराजगी जाहिर की है। हिदुओं के उत्पीड़न पर वहां की सुप्रीम कोर्ट भी दखल दे चुकी है, लेकिन सिध, पंजाब और बलूचिस्तान प्रांतों में हिदुओं पर इस तर्ज के अत्याचारों का सिलसिला थम नहीं रहा है। कई बार अपहरण कर धर्म परिवर्तित कर निकाह कराई गईं किशोरियां भी डर के चलते न्यायालय में सच्चाई उजागार नहीं कर पाती हैं, क्योंकि इन्हें परिजनों की हत्या करने की धमकी दे दी जाती है। इस बाबत दुनिया के कई मानवाधिकार संगठनों ने हृदय विदारक रिपोर्टें दी हैं, बावजूद भारत न तो इन जुल्मों का पाकिस्तान को कोई जवाब दे पाता है और न ही ठीक से संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर रख पाता है। लिहाजा पाक में रह रहे अल्पसंख्यक, मुस्लिम कट्टरपंथियों के रहमोकरम पर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। केंद्र की वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार तो फिर भी इस तरह के मामले सामने आने पर माकूल जवाब दे रही है, कितु पूर्व की केंद्र सरकारें लगभग मौन व उदासीन ही रही हैं। जबकि विभाजन के समय दोनों देशों के बीच जो समझौता हुआ था, उसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों को संपूर्ण सुरक्षा देने की प्रतिबद्धता जताई गई है।
इन अत्याचारों से मुक्ति का मार्ग तलाशते हिदू धार्मिक तीर्थ यात्राओं के बहाने अस्थायी वीजा पर लगातार भारत आ रहे हैं। नतीजतन इस्लाम धर्माबलंबी देश पाकिस्तान में 17 करोड़ मुसलमानों के बीच हिदुओं की आबादी बमुश्किल 27 लाख बची है। जबकि 1947 में इस आबादी का घनत्व 27 फीसदी था, जो अब घटकर महज दो फीसदी रह गया है। लाहौर स्थित जीसी विवि के प्राध्यापक कल्याण सिह ने बताया है कि पाक में पिछले 15 सालों से सिखों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है। जिसके चलते सिखों की संख्या महज 8000 बची है। हालांकि पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना ने अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिया था कि उन्हें हर क्षेत्र में समानता का अधिकार होगा और वे अपनी धार्मिक आस्था के लिए स्वतंत्र होंगे। कितु जिन्ना की मौत के बाद उनके समता के वचनों को दफना दिया गया।
सातवें दशक में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा का असली कारण बने जनरल जिया उल हक। उन्होंने नीतियों में बदलाव लाकर दो उपाय एक साथ किए, एक तरफ तो अफगानिस्तान में चल रहे संघर्ष के बहाने कट्टरपंथी मुसलमानों को संरक्षण देते हुए उन्हें अल्पसंख्यकों के खिलाफ उकसाने का काम किया। वहीं, दूसरी तरफ उनके मताधिकार पर प्रतिबंध लगाकर उन्हें अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया। यहीं से कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यकों को जबरन धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करने का सिलसिला शुरू कर दिया। देखते-देखते एक सुनियोजित साजिश के तहत नादान व नाबालिग अल्पसंख्यक लड़कियों का अपहरण और उनके धर्म परिवर्तन की शुरुआत हुई, जिससे पाकिस्तान में बचे-खुचे अल्पयंख्यक भी पलायन की प्रताड़ना के लिए विवश हो जाएं। बाद के दिनों में पाकिस्तानी मदरसों की पाठ्य पुस्तकों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत की इबारत लिखे पाठ भी पढ़ाए जाने लगे। यह जानकारी पाकिस्तान के ही एक स्वयंसेवी संगठन 'नेशनल कमीशन फॉर जस्टिस एंड पीस' की अध्ययन-रिपोर्ट से सामने आई। अलगाव के इन नीतिगत फैसलों के कारण हालात इतने भयावह और दयनीय हो गए हैं कि जो उदारवादी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की तरफदारी करने को आगे आते थे, उन्हें भी कट्टरपंथी सबक सिखाने लग जाते हैं।
पकिस्तान में ईशðनदा कानून इतना कठोर व अव्यवाहरिक है कि वह किसी भी प्रकार की मानवीय संवेदनशीलता को बर्दाशत नहीं करता। रिमशा मसीह नाम की एक 14 वर्षीय ईसाई लड़की को कथित ईशा निदा के आरोप में जिस तरह से हिरासत में लिया गया था, उसके बरअक्स पूरी दुनिया द्बारा दी गईं मानवाधिकार हनन की दलीलें बौनी साबित हो गईं थीं। रिमशा डाउन्स सिड्रोम नामक मानसिक रोग से पीड़ित थी। अनेक चश्मदीदों का मानना था कि उसपर लगाए आरोप बेबुनियाद हैं। वैसे भी जो इंसान विवेक खो चुका है, उसपर किसी की भी निदा करने का आरोप कहां तक जायज है? जबकि वह मनोरोगी के साथ नाबालिग भी थी। पाकिस्तान के इस्लामिक धर्मगुरूओं ने भी इस गिरफ्तारी को गलत मानते हुए निदा की थी। अदालत ने भी इस मामले में मानवीयता का परिचय नहीं दिया था और उसकी हिरासत की अवधि बढ़ाती चली गई थी। इससे लगता है वहां की न्याय प्रणाली भी निष्पक्ष व निरापद नहीं है।