कुछ छात्रों ने फैज का नज्म ‘हम देखेंगे …’ गाकर अपना विरोध प्रकट किया था

त्रिनाथ के.शर्मा


 


देशभर में पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज के एक नज्म को लेकर बवाल मचा हुआ है 




1984 में फैज अहमद फैज का निधन हो गया


इस नज्म में एक पंक्ति है 'बस नाम रहेगा अल्लाह का' जिसके आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार इसे सांप्रदायिक और हिदू विरोधी बता रही है


इसलिए सरकार की पहल पर इसकी जांच के लिए आईआईटी कानपुर ने एक समिति बनाई है
आईआईटी कानपुर के नज्म फैसले से देशभर के शायरों-साहित्यकारों में गुस्सा है



नज्म शुरुआत पाकिस्तान में उस समय हुई थी, जब वहां की तत्कालीन जियाउल हक सरकार द्बारा महिलाओं के साड़ी पहनने पर रोक लगा दी गई थी


फैज अहमद फैज भारतीय उपमहाद्बीप के विख्यात पंजाबी शायर थे


लियाकत अली खां की सरकार के तख्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में वे 1951-1955 तक कैद में रहे


पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज के अगर इस नज्म को लेकर मचे बवाल पर नजर दौड़ाएं तो इसकी शुरुआत पाकिस्तान में उस समय हुई थी, जब वहां की तत्कालीन जियाउल हक सरकार द्बारा महिलाओं के साड़ी पहनने पर रोक लगा दी गई थी। लेकिन सरकार के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए 1986 में वहां की मशहूर गायिका इकबाल बानो ने करीब 5०,००० लोगों की मौजूदगी में साड़ी पहन कर ही इस नज्म को गाया था। तभी से ये नज्म सरकार के फैसलों का विरोध करने वालों की आवाज बन गई।


आजकल देशभर में पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज के एक नज्म को लेकर बवाल मचा हुआ है। इस नज्म पर आरोप लग रहे हैं कि ये पूरी तरह से सांप्रदायिक है। दरअसल, नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आन्दोलन के दौरान 17 दिसम्बर को आईआईटी कानपुर के कुछ छात्रों ने फैज का नज्म 'हम देखेंगे …' गाकर अपना विरोध प्रकट किया था। इस नज्म में एक पंक्ति है 'बस नाम रहेगा अल्लाह का' जिसके आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार इसे सांप्रदायिक और हिदू विरोधी बता रही है। इसलिए सरकार की पहल पर इसकी जांच के लिए आईआईटी कानपुर ने एक समिति बनाई है। आईआईटी कानपुर के इस फैसले से देशभर के शायरों-साहित्यकारों में गुस्सा है। विपक्षी दल भी गुस्से को हवा देने में लगे हुए हैं। नतीजतन, फैज की नज्म अब कानपुर से निकलकर देश के दूसरे हिस्सों में भी गूंजने लगी है।



फैज अहमद फैज भारतीय उपमहाद्बीप के विख्यात पंजाबी शायर थे। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया था। उन्होंने अपने पूरे कैरियर के दौरान उच्च पदों पर काम किया। पाकिस्तान की सियासत में भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी। शुरुआत में कुछ वक़्त के लिए ब्रिटिश आर्मी में सेवा देने के बाद 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान के नागरिक बन गए। 1948 में पाकिस्तान टाइम्स जैसे बड़े अखबार में बतौर संपादक अपनी सेवा देने लगे। इस दौरान फैज ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। फैज ने जेल में भी अपनी इंकलाबी शायरी लिखने का सिलसिला जारी रखा तो जेल प्रशासन ने उनके लिखने पर ही पाबंदी लगा दी। 4 साल बाद जेल से छूटने के बाद 1955 में वे लंदन चले गए। 1958 में वे जब पाकिस्तान लौटे तो उन्हें फिर से राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा ने गिरफ्तार करा दिया। उन पर आरोप लगा था कि वे वामपंथी विचारों और रूसी सरकार के एजेंडे का प्रचार कर रहे थे। इन सब विवादों के बीच 196० में पाकिस्तान के वरिष्ठ नेता जुल्फिकार अली भुट्टो की मदद से वे मॉस्को और फिर लंदन चले गए। 1964 में फैज जब पाकिस्तान वापस आए तो कराची में बस गए और जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार में शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय में जिम्मेदारी संभाली।



पाकिस्तान के मशहूर शायर मरहूम फैज अहमद फैज इस नज्म के रचयिता हैं। 13 फरवरी 1911 को सियालकोट (अब पाकिस्तान) में जन्मे फैज अहमद फैज एक वामपंथी शायर थे। बेहद शिक्षित परिवार में पले-बढ़े फैज के बचपन के दिनों में ही घर पर साहित्यकारों का जमावड़ा लगा रहता था। पिता चाहते थे कि फैज भी उन्हीं के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए शिक्षित और विद्बान बनें। अपने पिता की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए फैज ने बचपन में ही अरबी, फारसी और उर्दू सीख ली। उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल तथा लाहौर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की तथा अंग्रेजी और अरबी में स्नातकोत्तर (एमए) किया। कैरियर की शुरुआत में वे एमएओ कालेज, अमृतसर में लेक्चरर बने। वहीं उन पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा, जो आखिर तक उनके साथ रहा। इसीलिए वामपंथी विचारधारा के लोग उन्हें अपना आदर्श मानते रहे हैं। फैज ने एक अंग्रेज महिला एलिस जॉर्ज से शादी की और दिल्ली में आ बसे। ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हुए और कर्नल के पद तक पहुंचे। बाद में भारत के विभाजन के समय पद से इस्तीफा देकर लाहौर चले गए। बाद में लियाकत अली खां की सरकार के तख्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में वे 1951-1955 तक कैद में रहे। उसके बाद 1962 तक वे लाहौर में पाकिस्तानी कला परिषद में रहे। 1963 में उन्होंने यूरोप, अल्जीरिया तथा मध्यपूर्व का भ्रमण किया। 1964 में वह पाकिस्तान लौट गए। वो 1958 में स्थापित एशिया-अफ्रीका लेखक संघ के स्थापक सदस्यों में से एक थे। भारत के साथ 1965 के पाकिस्तान से युद्ध के समय वे वहां के सूचना मंत्रालय में कार्यरत थे।



सबकुछ ठीक चल रहा था, लेकिन 1977 में जियाउल हक ने जुल्फिकार अली भुट्टो सरकार का तख्ता पलट कर दिया। इससे फैज के भीतर तक निराशा और नाराजगी ने घर कर लिया। बाद में उन्होंने जियाउल हक सरकार की नीतियों के खिलाफ अपनी लेखनी को धार देनी शुरु कर दी। नज्म 'हम देखेंगे …' भी उन्होंने उसी दौरान लिखी थी। 1984 में फैज अहमद फैज का निधन हो गया।