फोन में सिमटा हिन्दुस्तान

जब बच्चे की परवरिश नौकरों के हाथों में सौंप दी, तो उन्होंने यह जिम्मेदारी स्मार्ट फोन से साझा कर ली


परिणामत: धीरे-धीरे उसका फोन से लगाव बढ़ने लगा



हमारे बेटे-बेटियों का आउटडोर गेम, घर के बाहर जाकर खेलने का प्रचलन तो लगभग समाप्त ही हो गया है



धीरे-धीरे हमारे बच्चों का भी भौतिकतावादी युग की ओर पलायन होता जा रहा है



सुनहरे भविष्य के निर्माण के लिए हमें पुन: अपनी संस्कृति की ओर लौटना होगा



फोन का एडिक्ट होना बहुत घातक है, बच्चे खाना छोड़ सकते हैं, फोन नहीं


स्मार्टफोन में उलझा बचपन




डॉ. सीमा रानी


लखनऊ । घर का आँगन, माँ बाप का साथ, दादी-नानी की कहानियां, सब स्मार्टफोन के बीच कहीं खो गया है। संवेगात्मक सुरक्षा का ढ़ाँचा दिन प्रति दिन कमजोर पड़ता जा रहा है। इसी कारण बच्चों का रिश्तों के प्रति लगाव व प्रेम भी फीका पड़ने लगा है। बच्चा साँस को इतना पहचानता है कि किसी अपने की गोदी जाते ही रोता हुआ भी चुप हो जाता है, भूखा भी सो जाता है। समय के अभाव के कारण बच्चे के रोने पर झुनझुना बजाने या लोरी गाने के स्थान पर पास में मोबाइल में गाना बजाकर बच्चे को चुप करवाना हम ज्यादा अच्छा समझते हैं। बच्चों को साथ में ले जाकर घूमने का प्रचलन तो धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। नई पीढ़ी अपने काम, मनोरंजन, व्यक्तित्व निखार, व्यायाम, घूमना-फिरना आदि को कहीं अधिक महत्व देती है। यदि बच्चे छोटे हैं, तो वास्तव में ये सब भी हम बच्चे के समय में से कटौती करके करते हैं।
आज प्रतिस्पर्धा के युग में हमारे पास बच्चों को गोद में लेकर बैठने का समय ही नहीं है फिर हम कहते हैं बच्चे स्वार्थी हो गए। भावात्मक लगाव के लिए वास्तव में हम भी उसे गोद में लेकर नहीं बैठे, उसके साथ खेल नहीं खेले, उसे लेकर घूमने नहीं गये अर्थात प्रयास शून्य। 
खुद को बचाने के लिए हमने जब बच्चे की परवरिश नौकरों के हाथों में सौंप दी, तो उन्होंने यह जिम्मेदारी स्मार्ट फोन से साझा कर ली। जब कोशिश करने पर भी बच्चा नहीं चुपा तो नौकर ने फोन पर गाना बजाकर, विडियो दिखाकर बच्चों को चुप किया। परिणामत: धीरे-धीरे उसका फोन से लगाव बढ़ने लगा।
उम्र के पड़ाव पर थोड़ा और आगे बढ़ने पर हम देखते हैं पहले जो किचन सैट, गुड्डे गुडिया की शादी जैसे खेल खेले जाते थे, कहीं खो गये। आज हम इस होड़ में लगे हैं कि किसने कितना महंगा खिलौना दिया। किस मॉल का है, कौन सा टैग लगा है, ट्रैडमार्क खिलौने एकत्र करना मात्र बचपन का संरक्षण नहीं। पहले की तरह न हम उनके साथ खेले, न हाथ से सिलकर गुड़िया दी, न घर से दाल-चावल दिये कि वे छोटी सी हंडिया बनाते या घर की बनी हुई चीजें खेल-खेल में बांटते और खाते। वास्तव में न आज दादी की गुड़िया है न नानी का टोपी वाला गुड्डा! बच्चों की स्मार्टफोन पर चलती अंगुलियों को देख वास्तव में माता-पिता खुश होते हैं।हमारा बच्चा सारे एप चला लेता है, स्वयं गाना बजा देता है, गैलरी से फोटो खोलकर देख लेता है। मेरा बच्चा मात्र तीन साल का है! 
एक समय था रिश्तेदारों के आने पर सभी एक कमरे में नीचे बिस्तर लगाकर एक साथ सोते व बातचीत करते थे। फोन में विघ्न न हो अब अतिथि कक्ष का प्रचलन है। बच्चे न रिश्तेदारों के पास बैठेंगे, न बातचीत, न एक-दूसरे को जानेंगे। बहुत आवाज लगाने पर भीनमस्ते करके अपने कमरे में अपने फोन की दुनिया में मस्त हो जाते हैं। धीरे-धीरे स्मार्टफोन जहां उनको सोशल मीडिया से जोड़ रहा है वहीं रिश्तेदारों से मिलना-जुलना न के बराबर हो गया है। एक व्हाटसएप मैसेज भेजकर नई युग के बच्चे सोचते हैं कि उनकी जिम्मेदारी पूरी हो गयी। 
हमारे बेटे-बेटियों का आउटडोर गेम, घर के बाहर जाकर खेलने का प्रचलन तो लगभग समाप्त ही हो गया है। खो-खो, लगंडी टांग, आइस-पाइस, छिपम-छिपाई, गुल्ली-डंडा, कबड्डी, क्रिकेट, बैडमिटन जैसे खेल जो बच्चे गली में, पार्क में, छत पर, दूसरो के घर जाकर खेलते हैं सब समय के साथ कहीं खो गये। अब कोई पड़ोसी अपनी खिड़की का कांच टूटने की शिकायत करने नहीं आता दिखता।
परंतु धीरे-धीरे हमारे बच्चों का भी भौतिकतावादी युग की ओर पलायन होता जा रहा है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ स्मार्टफोन से बच्चों का लगाव दिन-प्रतिदिन घनिष्ठ होता जा रहा है। इस तरह के नये-नये एप चल गये है जिनके जरिये बच्चे स्वयं को स्मार्ट साबित करने में लगे रहते हैं। टिक-टॉक भी उनमें से एक है। लड़कियां इन पर संग्रह कर तरह-तरह के वीडियों बनाकर डालती रहती है। कैंडी क्रश की जिसे लत लग जाए छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। स्कोर बनाने की इतनी लगन जितनी मां की बीमारी की भी नहीं। पास बैठे बोलते रहो बच्चे अपनी ही दुनिया में खोये रहते हैं। 
लड़के भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं। ब्लू व्हेल, पबजी जैसे खेलों ने तो बच्चों को न केवल समाज से दूर किया है वरन् उनके जीवन को भी खतरे में डाला है। न जाने कितनी ही मौंते इस खेल के कारण हुईं। इसमें इस तरह के देना कि तेज मोटर साईकिल चलाओ, बहुत ऊँची जगह जाकर फोटो खींचों, हाथ की नस काट लो पर घर पर किसी को मत बताना, पूरे दिन घर पर किसी से बात न करना, ऊँची क्रेन पर चढ़ो, पूरे दिन हॉरर विडियो देखो आदि-आदि। इसी तरह पबजी एक मल्टीप्लेयर गेम है। इस खेल के अन्दर सौ लोग पैराशूट से एक द्बीप में उतरकर कई प्रकार के हथियारों को ढूंढकर स्वयं को बचाते हुए दूसरो को मारते हैं। यह खेल गोलक में रहकर खेला जाता है और फिर धीरे-धीरे यह गोला छोटा होता जाता है ताकि जीवित खिलाड़ी एक-दूसरे के आमने-सामने हो सके। यह खेल बच्चा जब खेलने लगता है तो उस पर जुनून सवार हो जाता है और लगभग पैंतालिस दिन तक लगातार भी बच्चे इस खेल को खेलते देखे जाते हैं।
स्मार्टफोन की दुनिया में खोते बच्चे वास्तव में घर से परिवार से दूर जा रहे हैं। महंगा फोन रखना उनका शौक बन गया है। फोन केवल सुविधा या उपयोग हेतु नहीं वरन महंगी फोन खरीदकर दोस्त को मुकाबले की पंक्ति में पीछे खड़ा करना भी है।अपनी फैन-फॉलोइंग बढ़ाने के लिए आज के बच्चे फ़ेसबुक, ट्विटर के जरिये सोशल नेटवîकग में सक्रिय रहना चाहते हैं। आज का युवा सोचता है जितने ज्यादा कमेंट आएं उतने ही बढ़िया।
 फोन का एडिक्ट होना बहुत घातक है। बच्चे खाना छोड़ सकते हैं, फोन नहीं। थोड़ी देर के लिए भी मोबाइल से अलग होने पर युवा पीढ़ी में तनाव इnब्द्बद्गप्भ बढ़ जाती है। वे मोबाइल को अपनी पहुंच या सीमा में ही रखना चाहते हैं। जेब में, हाथ में, सोते समय तकिये के नीचे।वास्तव में मीटिग में, फ्लाइट में, धार्मिक स्थलों, क्लास, हॉस्पिटल या दर्शनीय स्थानों पर भी मोबाइल पर पाबंदी लगाने पर बच्चों को मानसिक परेशानी, तनाव महसूस होता है। लगभग एक तिहाई युवाओं को 3० मिनट तक यदि फोन की रिग न बजे तो मानसिक तनाव होता है। वे बार-बार मोबाइल, व्हाट्सएप मैसेज, फ़ेसबुक चैट देखते रहते हैं। इस कारण उनकी पढ़ने में रूचि धीरे-धीरे कम होती जाती है। वे कई रोगों के शिकार होते जा रहे हैं। गर्दन में दर्द, सिरदर्द, आँखों में दर्द, चक्कर आना, डिप्रेशन, गुस्सा आना, नींद पूरी न होना, मानसिक तनाव आदि। अभिभावकों व बच्चों में आपसी कलह व अलगाव भी देखने को मिलता है। स्मार्टफोन ने ब्लैकमेलिग एवं अपराधों को भी बढ़ावा दिया है। बच्चें इसपर अश्लील तस्वीरें व संदेश पढ़कर भटक जाते हैं।
सुनहरे भविष्य के निर्माण के लिए हमें पुन: अपनी संस्कृति की ओर लौटना होगा। बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताकर स्मार्टफोन से उपयुक्त दूरी बनाने में उनकी मदद करनी होगी। धीरे-धीरे करके उन्हें प्रेरित करना होगा कि वे दो घंटे से ज्यादा मोबाइल के साथ न रहे। संवादहीनता समाप्त कर एक साथ उठे बैठें, खायें-पीयें व चर्चा करें। इलैक्ट्रॉनिक कर्फ्यू की तरह उन्हें प्रेरित करें 24 घंटे में केवल 1 ही बार मोबाइल चार्ज करे यदि बैटरी समाप्त हो जाये तो उन्हें फोन कुछ देर बन्द रखने को प्रेरित करें।