...अब प्रवासी मजदूरों को  अपनी मिट्टी ही स्वर्ग दिखने लगी है

...यदि अपने गांव और प्रदेश में ही सुविधा मिले तो हम पलायन क्यों करेंगे


यदि यही रोजगार और सुविधा मिले जाएं तो खुद की मिट्टी के होकर रह जाएंगे 


लॉकडाउन के चलते प्रवासी मजदूरों का काम करीब डेढ़ माह से बंद है


लखनऊ । प्रवासी मजदूरों का कहना है कि यहंा के कंपनियों में पूरी व वाजिक मजदूरी नहीं मिलने के कारण ज्यादातर मजदूर दूसरों राज्यों की ओर पलायन कर जाते हैं। जबकि वहंा वह प्रतिदिन की हाजिरी पर काम करते हैं। मजदूरी के काम पर शनिवार और रविवार की छुट्टी भी मिलती है। छुट्टी में काम करने पर हाजिरी बनती है जिसका पैसा मिलता है। जबकि यहां किसी भी काम में न सही मजदूरी मिलती है और ना ही छुट्टी मिलती है। यहंा विचैलिए हावी होते हैं। बिचैलिए महीने भर की हाजिरी का पैसा नहीं देते हैं। मजदूरों का कहना है कि यहंा आश्वासन ही मिलता है, काम नहीं है, इसके बावजूद वे घर में ही रहेंगे। अब यहीं बेहतर कमाई कर सकते हैं। क्योंकि खेती किसानी का विकल्प है। हालांकि खेती किसानी करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी खाद नहीं मिल पाता है। गांव में पानी की सुविधा नहीं है। इससे अक्सर फसल को नुकसान पहुंचता है। सरकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिलता है। ऐसे में थोड़ी मुश्किल होंगी लेकिन अब यहीं रहेंगे।  प्रवासी मजदूर रामजी कहते है घर परिवार से दूर वापस नहीं जाएंगे। काफी मशक्कत के बाद मुंबई से गांव लौटा हूं। लौटने के बाद से ही सुरक्षा को लेकर दो होम क्वॉरेंटाइन गुजारने के बाद अभी तक परिवार से नहीं मिला हूं। घर से दूर खलासी या लेबर का ही काम करता था अब अपने घर आया हूं तो फिर से खेती किसानी करेंगे। बेहतर फसल हो इसका ध्यान रखूंगा। कौशल कहते है पानी की समस्या है इसलिए खेती नहीं करते। अपना पेट चलाने के लिए कोई बाहर नहीं जाता। परिवार में 6 सदस्य हैं। उनका खर्च उठा सकें इसीलिए पलायन को विवश होते हैं।

रोजी-रोटी के लिए दूसरे में गए प्रवासी मजदूरों को कोरोना के डंक में जारी लॉकडाउन उनकी न सिर्फ दिनचर्या व सोच बदली दी है, बल्कि ऐसा खौफ पैदा किया है कि अब उन्हें अपनी मिट्टी ही स्वर्ग दिखने लगी है। परदेश में काम छीनने के बाद 45 दिन के लॉकडाउन में पाई-पाई को मोहताज व खाने को दाने-दाने से महरुम प्रवासी प्रवासी मजदूर जब अपने वतन पहुंचे उनके मुख से कुछ ऐसे ही बोल फूट रहे है। मतलब साफ है कोरोना के कहर है ने इन मजदूरों की न सिर्फ कमाई छीन ली, बल्कि उनके सोच को भी बदल दिया है। परदेश की जलालत ने उन्हें कुछ इस तरह झकझोर दिया है कि उनके मुख से बस यही बोल फूट रहे है, नून-रोटी खायेंगे, एक वक्त भूखा रह लेंगे पर परदेश नहीं जायेंगे। अब अपने ही मिट्टी से सोना पैदा करेंगे। 

 लॉकडाउन के चलते प्रवासी मजदूरों का काम करीब डेढ़ माह से बंद है। कमाई का जरिया नहीं होने से अब वेघर लौट रहे हैं। वह भी काफी मशक्कत के बाद। इस बीच परिवार के पालन-पोषण की भी ङ्क्षचता उन्हें है। पैदल ही राह चलते मजदूरों ने अपना गम शेयर करते हुए कहते है कोरोना महामारी के बीच लॉकडाउन ने उन्हें जो तंगी दिखाई है उससे उबरने में काफी समय लगेगा। कई प्रवासी मजदूरों ने कहा, दोबारा अब पलायन नहीं करना चाहते। यदि यही रोजगार और सुविधा मिले जाएं तो खुद की मिट्टी के होकर रह जाएंगे। इन मजदूरों ने कहा कि अब अपना समय घर परिवार के बीच रहकर गुजारना चाहते हैं। खेती किसानी को समय देंगे। यहीं मेहनत मजदूरी करेंगे। मजदूरों का कहना है कि गांव में हमारे पास खेती के लिए पर्याप्त जमीन है। अगर ढ़ंग से खेती करें तो सालभर की कमाई कमाया जा जा सकता है।  दिल्ली से लौटे क्वारंटाइन में दिन काट रहे दो दर्जन से अधिक प्रवासी मजदूरों का कहना है कि वे कंस्ट्रक्शन व ड्राइवरी का काम करते हैं। यहंा काम नहीं मिलने से परदेश गए थे, लेकिन अब नहीं जायेंगे। यहां के बड़ी कंपनियों में मजदूरों से उनकी पढ़ाई का विवरण मांगा जाता है जबकि दिल्ली में ऐसा नहीं है।   

 

यदि अपने गांव और प्रदेश में ही सुविधा मिले तो हम पलायन क्यों करेंगे। मेरे गांव में पानी की बहुत समस्या है। खेती किसानी के लिए पूरी तरह से बरसात के पानी पर निर्भर रहना पड़ता है। इसके बावजूद वे अब वापस दूसरे राज्य में काम की तलाश में नहीं जाना चाहते हैं। अब यहीं काम करेंगे। जवाहर कहते है गांव में पानी की बहुत समस्या है। खेतों के जमीन तक पानी नहीं पहुंचता है। ग्राम सभा या पंचायत भी किसानों की मदद के लिए काम नहीं ही करती है। अब तक 5 लोकसभा व 6 विधानसभा चुनाव देख चुके हैं पानी मुद्दा बनता है पर समस्या का हल नहीं होता। पानी मिले तो अच्छा फसल उगाई जा सकती है।  बीमारी, शारीरिक कष्ट, आॢथक तंगी और लॉकडाउन से परेशान प्रवासी मजदूर कंहैया कहते है अपनी घर वापसी व परिजनों से मिलने के बाद ऐसा लग रहाहै जैसे स्वर्ग में आ गए हो। अब यही जिएंगे और यही मरेंगे। उन्हें घर वापसी की उम्मीद नहीं थी।