नई शिक्षा नीति का ठीक से क्रियान्यवन बहुत जरुरी : प्रो. विभा

नई शिक्षा नीति का ठीक से क्रियान्यवन बहुत जरुरी : प्रो. विभा



शैलेन्द्र मिश्रा



लखनऊ। नारी शिक्षा निकेतन पीजी कॉलेज मे मानवाास्त्र विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर  विभा अग्निहोत्री ने नई शिक्षा नीति पर जाहिर की अपनी राय। वह दो दर्जन देाों में अपना शोध प्रत्र प्रस्तुत कर चुकी हैं और मानव शास्त्र एवं ज्योतिष शास़्त्र पर कई किताबें भी लिख चुकी हैं। इसके अलावा वह वॉइस ऑफ इन्टलेक्चुअल मैन की संपादक भी हैं।
सरकार ने चौतीस साल बाद अभी हाल मेंं नई शिक्षा नीति का मसौदा लाई है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या नई ािक्षा नीति बच्चों की जिंदगी को सही दिशा दे पाएगी या उनका जीवन संवार पाएंगी? क्या यह शिक्षा नीति बच्चों के मम्मी-पापा की सोच मे ं परिवर्तन ला  पाएंगी, यह एक सोचने की बात है। जो भी नई बात होती हैे उसके बारे में थोड़ा असंमजस की स्थिति बन जाना स्वाभाविक ही  होता हैं। एक बात और अहम है कि यहां नई शिक्षा नीति के बारे मेंं बात करने से पहले हमे पुरानी शिक्षा नीति को थोड़ा जान लेना जरूरी है। अगर कहा जाए तो अपने देश की ािक्षा नीति में मैकाले की नीति का प्रभाव जबरर्दस्त रहा। जिसका असर यह पड़ा कि बच्चों की रटने की आदत पड़ गई। बच्चों की पीठ पर किताबोंं का  बोझ तो बढ़ता रहा, लेकिन उनकी बुद्घि का विकास उतना नहीं हो पाया जितना होना चाहिए था। बच्चों ने रट के अच्छे अंक तो पा लिए लेकिन कुछ सोचने की ताकत नहीं रही। बच्चों को शुरूआती कक्षाओं से ही अंग्रेजी पढ़ाई जाने लगी, जिसका परिणाम यह रहा कि बच्चा पढ़ तो रहा है लेकिन उसें क्या पढ़ाया जा रहा है, यह नहीं सोच पा रहा था। दूसरी ओर इंग्लिा का बोल-बाला बढ़ गया। जो माता-पिता इंग्लिा नहीं भी जानते थे, वे भी अपने बच्चों को इंग्लिा में पढ़वाने लगे। अं्रग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने लगे। नए कोचिंग सेंटर भी खुल गए जो 90 घंटों के अंदर फर्राटेदार अंग्रेजी सिखाने का दावा भी करने लगे। अंग्रेजी सिखाने के नाम पर भी खूब कमाई की गई। हर मां-बाप अपने बच्चों के मुंह से इंग्लिा के ही शब्द सुनना पसंद करने लगा था।
अगर उससे भी थोड़ा पीछे जाए तो सांइस पढऩे बड़ा के्रज रहा। हर मां-बाप अपने बच्चों को सांइस ही पढ़वाना चाहता था। ऐसा लगता था कि बिन साइंस सब सून हो गया हैं। हर माता-पिता की ख्वाइा होती थी कि मेरा बच्चा  बड़ा होकर डाक्टर-इंजीनियर बने। आर्ट्स साइड से पढने वालों को लोग बड़ी हेय दृष्टि से देखते थे। जैसे उसने कोई गुनाहा कर दिया हो। कोई रितेदार जब  घर आता था तो वह  यह जरूर पूछता था कि बेटा किस विषय से पढ़ रहे हो। अगर आर्ट बता दिया वह बडी गिरी हुई दृष्टि देखता था और कहता था मेरा बेटा तो साइंस साइड से पढ़ रहा हैं। शायद ािक्षा नीति की देन रही होगी कि हमारे समाज में लोग डाक्टर-इंजीनियर के अलावा और कुछ सोच ही नहीं पाते थे। अगर इससे भी पीेछे जाए तो बच्चों को वकालत पढ़वाने को बडा शौक था। जिसको देखों को वह वकील ही हुआ करता था। किसी की शादी होती थी तो कोई पूछता कि लड़का क्या कर रहा है, दूसरा व्यक्ति बड़ी शान से कहता था कि लड़का वकील है।
ये सब बात करने का तात्पर्य यही निकल रहा है कि  ािक्षा नीति के अनुसार ही लोगों की सोच भी  बदलती है और बच्चे की पीठ से किताबों का बोझ भी कम -ज्यादा हुआ करता है।
नई ािक्षा नीति को लेकर जब ािक्षाविद् और विदुषी डॉ. विभा अग्निहोत्री से बात की। डॉ. विभा नारी शिक्षा निकेतन पीजी गल्र्स कॉलेज में मानवशास्त्र विभाग मे एसोसिएट प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष हैं। उन्होंने बताया कि नई शिक्षा नीति अच्छी तो हैं लेकिन इसका क्रियान्यवन ठीक से तरह से हो जाए। विश्व के लगभग डेढ़ दर्जन देाों में शोध पत्र प्रस्तुत कर आई डॉ. विभा ने  नई नीति के कुछ बिन्दुओं पर बात करते हुए कहा कि इसमें शुरुआत में जो मातृभाषा में पढ़ाई पर जोर दिया गया है वह मेरे अनुसार यह बहुत अच्छी बात हैं। अभी तक बच्चा अंग्रेजी में प्रन-उत्तर रट लेटा था लेकिन समझता नहीं था। अब यह है मातृभाषा पढने से उसकी समझ विकसित होगी। वह क्या पढ़ रहा है वह यह बात समझ पाएगा। वैसे भी यह स्वाभाविक है कि  कोई भी अपनी मातृभाषा में ही अपनी बात को बहुत अच्छी तरह से कह सकता है और समझ भी सकता है। उसके ऊपर से इंग्लिश को सीखने का दबाव नहीं रहेगा। इसके अलावा समाज में जो ह्म्दिी-इंग्लिश की दोहरी मानसिकता बन गई उसमें भी बदलाव आएगा।
इस नीति में जो वोकेानल शिक्षा की बात कही गई है वह भी बहुत अच्छी बात है। बच्चा का झुकाव अब अपनी पसंद की वोकोनल शिक्षा पर होगा जिससे वह आगे चलकर अपना वह अपना व्यवसाय शुरू कर सकता हैं। इससे किताबों का बोझ भी कम होगा और उच्च शिक्षा की आवयकता भी सबके जरूरी नहीं रह जाएगी। जिसको उच्च शिक्षा ग्रहण करनी होगी, वही आगे की पढ़ाई करेगा।
 उन्होंने कहा कि इसमें एक बिन्दु है कि बच्चा उच्च शिक्षा में किसी विषय की पढाई के दौरान अगर उसकी समझ में विषय नहीं आ रहा है तो वह अपना विषय बदल सकता हैं। इससे एक तो बच्चे में विषय को लेकर तनाव नहीं रहेगा। दूसरी बात बच्चा चाहे तो एक साल या दो साल बाद अपना विषय बदल सकता हैं और उसको वर्ष के अनुसार प्रमाण पत्र, डिप्लोमा और डिग्री मिल भी जाएगी। उसके अंक भी दूसरे विषय में जुड़ जाएंगे। अभी तक तो यह होता था कि एक विषय को बच्चे पर तनाव बहुत रहता था। इसके लिए वह अलग से पढ़ाई करे या साल बर्बाद करें। एक प्रन के उत्तर में डॉ. विभा ने यह कहा कि केवल स्कूल या कॉलेज स्तर पर बच्चों की पढ़ाई बदलाव कर देने से इसका कोई विशेष लाभ नहीं होगा जब तक इसका लाभ बच्चों को नौकरी में न मिले। अंत में उन्होंने कहा पढ़ाई वहीं होनी चाहिए जो बच्चों को समाज में किसी लायक बना सके जिंदगी में आगे बढऩे का मौका प्रदान कर पाए। वैसे तो कोई नया बदलाव अच्छाई और जीवन में तरक्की के लिए ही आता है लेकिन यह एक शंका जरूर है कि चाहे वह मेडिकल की पढाई हो, इंजीनियरिंग की पढाई हो या वकालत की ही पढाई हो, अधिकांशत: पढ़ाई अंग्रेजी भाषा में ही होती है, यहां तक कि बहुत सी नौकरियों में अंग्रेजी का आना बहुत जरूरी है, ऐसे में इस नीति से पढ़ाई करके बच्चा अपना अस्तित्व बना पाएंगा।